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    1.2 - विश्वव्यापक प्रेम - Vishwavyapak Prem - Class 7 - Sugambharati 1

    • Oct 9
    • 9 min read

    Updated: Oct 10

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    पाठ का प्रकार: पद्य (पद) पाठ का शीर्षक: विश्वव्यापक प्रेम लेखक/कवि का नाम: राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज


    सारांश (Bilingual Summary)


    हिन्दी: प्रस्तुत पद में, राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज ईश्वर की सर्वव्यापकता का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर हर देश में, हर रूप में मौजूद है; उसके नाम अनेक हैं, पर वह तत्व रूप में एक ही है। यह पूरी दुनिया उसकी रंगभूमि है और हर खेल और मेल में वही समाया हुआ है। कवि प्रकृति के उदाहरणों से अपनी बात स्पष्ट करते हैं—जैसे सागर से बादल बनना, बादल से जल बरसना और फिर नहरें और नदियाँ बनना; ये सब उसी एक ईश्वर के विभिन्न प्रकार हैं। वह चींटी से लेकर अणु-परमाणु, पर्वत और वृक्ष तक, हर जीव और वस्तु में विद्यमान है। अंत में, कवि कहते हैं कि इस दिव्य सत्य का ज्ञान उन्हें गुरु की कृपा से हुआ है, जिससे उन्हें यह बोध हो गया है कि 'मैं' और 'तू' का भेद मिट गया है और सब एक ही हैं।

    English: In this verse, Rashtrasant Tukdoji Maharaj describes the omnipresence of God. He says that God is present in every country, in every form; His names are many, but He is essentially one. This entire world is His stage, and He is present in every play and union. The poet clarifies his point with examples from nature—like the sea rising to become clouds, clouds bursting to become water, and then forming canals and rivers; these are all different forms of that one God. He is present in every creature and object, from an ant to atoms, mountains, and trees. In the end, the poet states that he gained the knowledge of this divine truth through the grace of his Guru, which made him realize that the distinction between 'I' and 'you' has vanished, and all are one.


    केंद्रीय भाव (Bilingual Theme / Central Idea)


    हिन्दी: इस पद का केंद्रीय भाव ईश्वर की विश्वव्यापकता और सभी प्राणियों में उसकी एकता को दर्शाना है। कवि यह संदेश देना चाहते हैं कि धर्म, देश और रूप के आधार पर जो भेद हमें दिखाई देते हैं, वे सब बाहरी हैं; आंतरिक रूप से एक ही सत्ता (ईश्वर) सभी में व्याप्त है। प्रकृति के विभिन्न रूप उसी एक ईश्वर की अभिव्यक्ति हैं। इस एकता का सच्चा ज्ञान गुरु की कृपा के बिना संभव नहीं है। पद का मूल उद्देश्य 'वसुधैव कुटुंबकम्' और 'सर्वधर्म समभाव' की भावना को पुष्ट करना तथा गुरु के महत्व को प्रतिपादित करना है।

    English: The central theme of this verse is to showcase the omnipresence of God and the unity within all beings. The poet wants to convey the message that the differences we see based on religion, country, and form are all external; internally, the same single entity (God) pervades all. The various forms of nature are expressions of that one God. The true knowledge of this unity is not possible without the grace of a Guru. The core purpose of the verse is to strengthen the spirit of 'Vasudhaiva Kutumbakam' (the world is one family) and religious harmony, and to propound the importance of the Guru.


    शब्दार्थ (Glossary)


    शब्द (Word)

    पर्यायवाची शब्द (Synonym)

    विलोम शब्द (Antonym)

    भेष

    रूप, वेश

    -

    विश्व

    जगत, संसार

    -

    सागर

    समुद्र, जलधि

    -

    अणु

    कण

    -

    विशाल

    बड़ा, विराट

    लघु, छोटा

    दिव्य

    अलौकिक, दैवीय

    लौकिक, सांसारिक

    दया

    कृपा, करुणा

    निर्दयता, क्रूरता

    भिन्न

    अलग, विभिन्न

    समान, एक

    सौंदर्य

    सुंदरता, छटा

    कुरूपता

    मेल

    मिलन, एकता

    भेद, अलगाव


    पंक्तियों का सरल अर्थ लिखें (Simple Meaning of Lines)


    १. हर देश में तू हर भेष में तू...सब खेल में, मेल में तू ही तू है॥ परिचय: इन पंक्तियों में कवि ईश्वर की सर्वव्यापकता का गुणगान कर रहे हैं। सरल अर्थ: कवि कहते हैं कि हे ईश्वर! तुम हर देश में मौजूद हो, तुम हर रूप में विद्यमान हो। तुम्हारे नाम भले ही अनेक हैं, लेकिन तुम एक ही हो। यह संपूर्ण विश्व तुम्हारी ही रंगभूमि (मंच) है और यहाँ होने वाले हर खेल और हर मिलन में तुम्हीं समाए हुए हो।

    २. सागर से उठा बादल बन के...तेरे भिन्न प्रकार तू एक ही है॥ परिचय: कवि यहाँ प्रकृति के जल-चक्र के उदाहरण से ईश्वर के एक ही तत्व के विविध रूपों को समझा रहे हैं। सरल अर्थ: हे प्रभु! तुम ही सागर से भाप बनकर बादल के रूप में ऊपर उठते हो, और फिर बादल से जल के रूप में बरस जाते हो। वही जल फिर नहर और गहरी नदियों का रूप ले लेता है। ये सब तुम्हारे ही अलग-अलग प्रकार हैं, लेकिन मूल रूप में तुम एक ही हो।

    ३. चींटी से भी अणु-परमाणु बना...सौंदर्य तेरा तू एक ही है॥ परिचय: इन पंक्तियों में कवि ईश्वर की सृष्टि के कण-कण में उपस्थिति को दर्शा रहे हैं। सरल अर्थ: हे ईश्वर! तुमने चींटी से लेकर अत्यंत सूक्ष्म अणु-परमाणु तक, सभी जीव-जगत का रूप धारण किया है। कहीं तुम विशाल पर्वत और वृक्ष बनकर खड़े हो। यह सब तुम्हारा ही सौंदर्य है, और इन सभी रूपों में तुम एक ही हो।

    ४. यह दिव्य दिखाया है जिसने...बस मैं और तू सब एक ही है॥ परिचय: अंतिम पंक्तियों में कवि इस ज्ञान की प्राप्ति का श्रेय अपने गुरु को दे रहे हैं। सरल अर्थ: यह दिव्य ज्ञान (कि सब कुछ एक ही ईश्वर का रूप है) जिसने मुझे दिखाया है, वह मेरे गुरुदेव की पूर्ण कृपा ही है। तुकडोजी महाराज कहते हैं कि अब मुझे कोई और नहीं दिखाई देता, क्योंकि मुझे यह बोध हो गया है कि बस मैं और तू (ईश्वर), हम सब एक ही हैं, कोई भेद नहीं है।


    सही या गलत (कारण सहित) (True or False with Reason)


    कथन १: कवि के अनुसार ईश्वर के अनेक नाम हैं और वे अनेक हैं। उत्तर: गलत। कारण, कवि कहते हैं, "तेरे नाम अनेक तू एक ही है।"

    कथन २: कवि ने विश्व को ईश्वर की रंगभूमि कहा है। उत्तर: सही। कारण, कविता में पंक्ति है, "तेरी रंगभूमि यह विश्व भरा"।

    कथन ३: कवि को ईश्वर के अनेक रूपों का ज्ञान स्वयं की बुद्धि से प्राप्त हुआ। उत्तर: गलत। कारण, कवि कहते हैं, "यह दिव्य दिखाया है जिसने, वह है गुरुदेव की पूर्ण दया।"

    कथन ४: ईश्वर केवल बड़े-बड़े पर्वतों और वृक्षों में ही निवास करते हैं। उत्तर: गलत। कारण, कवि के अनुसार ईश्वर "चींटी से भी अणु-परमाणु" तक में बसे हैं।

    कथन ५: कवि मानते हैं कि उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं है। उत्तर: सही। कारण, वे अंत में कहते हैं, "बस मैं और तू सब एक ही है।"


    पद विश्लेषण (Poetry Appreciation)


    रचनाकार का नाम: राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज रचना का प्रकार: पद

    पसंदीदा पंक्ति

    पसंदीदा होने का कारण

    रचना से प्राप्त संदेश

    हर देश में तू हर भेष में तू, तेरे नाम अनेक तू एक ही है।

    यह पंक्ति 'अनेकता में एकता' के महान भारतीय दर्शन को बहुत ही सरल शब्दों में प्रस्तुत करती है। यह सभी धर्मों और देशों की एकता का आधार है।

    हमें देश, धर्म या रूप के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए क्योंकि सबमें एक ही ईश्वर है।

    तेरी रंगभूमि यह विश्व भरा, सब खेल में, मेल में तू ही तू है।

    यह पंक्ति जीवन को एक ईश्वरीय लीला (खेल) के रूप में देखने का सुंदर दृष्टिकोण देती है। इससे जीवन की घटनाओं को सहजता से स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है।

    जीवन के हर उतार-चढ़ाव और हर रिश्ते में हमें ईश्वर की उपस्थिति को महसूस करना चाहिए।

    तेरे भिन्न प्रकार तू एक ही है।

    यह पंक्ति प्रकृति के विज्ञान (जैसे जल-चक्र) को आध्यात्मिकता से जोड़ती है। यह दिखाती है कि कैसे विविध रूपों के पीछे एक ही मूल तत्व होता है।

    हमें बाहरी भिन्नताओं में उलझने की बजाय सभी में निहित आंतरिक एकता को खोजना चाहिए।

    कहीं पर्वत, वृक्ष विशाल बना, सौंदर्य तेरा तू एक ही है।

    यह पंक्ति प्रकृति के विशाल और सुंदर रूपों में ईश्वर के सौंदर्य को देखने की दृष्टि प्रदान करती है। यह प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव जगाती है।

    प्रकृति की सुंदरता ईश्वर का ही प्रतिबिंब है, इसलिए हमें उसका सम्मान और संरक्षण करना चाहिए।

    यह दिव्य दिखाया है जिसने, वह है गुरुदेव की पूर्ण दया।

    यह पंक्ति भारतीय संस्कृति में गुरु के सर्वोच्च स्थान को दर्शाती है। यह बताती है कि सच्चा आत्म-ज्ञान गुरु की कृपा के बिना संभव नहीं है।

    जीवन में सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक योग्य गुरु का मार्गदर्शन अत्यंत आवश्यक है।


    स्वमत (Personal Opinion)


    प्रश्न १: 'मानवता ही पंथ मेरा' - तुकडोजी महाराज के इस विचार से आप क्या समझते हैं? उत्तर: तुकडोजी महाराज के इस विचार से मैं यह समझता हूँ कि वे किसी विशेष धर्म या संप्रदाय को नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव जाति की सेवा को ही अपना एकमात्र धर्म मानते थे। उनके लिए, किसी व्यक्ति की पहचान उसके धर्म से नहीं, बल्कि उसके मनुष्य होने से थी। यह विचार हमें सिखाता है कि हमें धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर सभी मनुष्यों से प्रेम करना चाहिए और उनकी भलाई के लिए कार्य करना चाहिए। सच्चा धर्म मंदिर-मस्जिद में नहीं, बल्कि दुखी और जरूरतमंद इंसान की सेवा में है। उत्तर लिखने के लिए उपयोगी महत्वपूर्ण शब्द: मानवता, मानव-सेवा, धर्म-निरपेक्षता, भेदभाव-रहित, प्रेम, भलाई, सच्ची पूजा।

    प्रश्न २: कवि ने गुरु की कृपा को क्यों महत्वपूर्ण माना है? उत्तर: कवि ने गुरु की कृपा को इसलिए महत्वपूर्ण माना है क्योंकि इस संसार की हर वस्तु में ईश्वर को देखने की दिव्य दृष्टि (दिव्य दिखाया) उन्हें गुरु की कृपा से ही प्राप्त हुई है। किताबी ज्ञान हमें यह बता सकता है कि ईश्वर एक है, लेकिन इस सत्य का वास्तविक अनुभव और अनुभूति एक सच्चे गुरु के मार्गदर्शन के बिना संभव नहीं है। गुरु हमारे अज्ञान के अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश देते हैं और हमें 'मैं' और 'तू' के भेद से ऊपर उठाकर एकता का बोध कराते हैं। इसीलिए भारतीय परंपरा में गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया गया है। उत्तर लिखने के लिए उपयोगी महत्वपूर्ण शब्द: गुरु-कृपा, दिव्य-दृष्टि, वास्तविक अनुभव, अज्ञान का अंधकार, ज्ञान का प्रकाश, एकता का बोध।

    प्रश्न ३: "सागर से उठा बादल बन के...तेरे भिन्न प्रकार तू एक ही है" - इन पंक्तियों में छिपे वैज्ञानिक और आध्यात्मिक सत्य को स्पष्ट कीजिए। उत्तर: इन पंक्तियों में एक साथ वैज्ञानिक और आध्यात्मिक सत्य छिपा है। वैज्ञानिक सत्य यह है कि यह जल-चक्र (Water Cycle) का वर्णन है, जिसमें सागर का पानी भाप बनकर बादल बनता है और फिर वर्षा के रूप में बरसकर नदियों के माध्यम से वापस सागर में मिल जाता है। रूप बदलते हैं, पर तत्व (पानी) एक ही रहता है। आध्यात्मिक सत्य यह है कि इसी तरह, ईश्वर भी इस सृष्टि में अलग-अलग रूपों (मनुष्य, पशु, पेड़, पौधे) में प्रकट होता है, लेकिन उन सभी रूपों के भीतर एक ही परमात्मा तत्व विद्यमान है। नाम और रूप अनेक हैं, पर आत्मा एक ही है। उत्तर लिखने के लिए उपयोगी महत्वपूर्ण शब्द: वैज्ञानिक सत्य, जल-चक्र, आध्यात्मिक सत्य, परमात्मा, आत्मा, अनेक रूप, एक तत्व।

    प्रश्न ४: 'सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः' - इस विचार और कविता के भाव में क्या समानता है? उत्तर: 'सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः' का अर्थ है 'सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों'। यह प्रार्थना पूरे विश्व के कल्याण की कामना करती है। इस विचार और कविता के भाव में गहरी समानता है। कविता कहती है कि "हर देश में तू, हर भेष में तू," जिसका अर्थ है कि सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं। जब सभी एक ही परिवार के सदस्य हैं, तो हमें उन सभी के सुख और कल्याण की कामना करनी चाहिए। दोनों ही विचार हमें संकीर्ण 'स्व' से ऊपर उठाकर 'सर्व' के कल्याण की बात सिखाते हैं और विश्व-बंधुत्व की भावना को मजबूत करते हैं। उत्तर लिखने के लिए उपयोगी महत्वपूर्ण शब्द: समानता, विश्व-कल्याण, विश्व-बंधुत्व, एक परिवार, संकीर्णता से ऊपर, सबका भला।

    प्रश्न ५: यदि सभी लोग यह समझ जाएँ कि "बस मैं और तू सब एक ही है", तो दुनिया कैसी होगी? उत्तर: यदि सभी लोग यह समझ जाएँ कि हम सब एक ही हैं, तो यह दुनिया स्वर्ग बन जाएगी। धर्म, जाति, देश, और रंग के नाम पर होने वाले सारे झगड़े और युद्ध समाप्त हो जाएँगे। कोई किसी से ईर्ष्या या घृणा नहीं करेगा, क्योंकि दूसरे को दुख पहुँचाना स्वयं को दुख पहुँचाने जैसा होगा। समाज में प्रेम, सहयोग और समानता का भाव होगा। कोई अमीर-गरीब का भेद नहीं होगा, और लोग एक-दूसरे की मदद के लिए हमेशा तैयार रहेंगे। यह एक ऐसी आदर्श दुनिया होगी जहाँ केवल शांति और आनंद का वास होगा। उत्तर लिखने के लिए उपयोगी महत्वपूर्ण शब्द: स्वर्ग, युद्ध समाप्त, घृणा समाप्त, प्रेम, सहयोग, समानता, शांति, आनंद, आदर्श दुनिया।


    संभावित परीक्षा प्रश्न (Probable Exam Questions)


    प्रश्न १: कवि ने ईश्वर के किन-किन रूपों का वर्णन किया है? उत्तर: कवि ने ईश्वर के अनेक रूपों का वर्णन किया है, जैसे - सागर, बादल, जल, नहर, नदियाँ, चींटी, अणु-परमाणु, पर्वत और वृक्ष।

    प्रश्न २: कवि को ईश्वर की एकता का दिव्य ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? उत्तर: कवि को ईश्वर की एकता का दिव्य ज्ञान उनके गुरुदेव की पूर्ण दया (कृपा) से प्राप्त हुआ।

    प्रश्न ३: कविता की पंक्तियाँ पूर्ण करो: (क) सागर से उठा बादल बन के, बादल से फटा जल हो करके। फिर नहर बनी नदियाँ गहरी, तेरे भिन्न प्रकार तू एक ही है। (ख) चींटी से भी अणु-परमाणु बना, सब जीव जगत का रूप लिया। कहीं पर्वत, वृक्ष विशाल बना, सौंदर्य तेरा तू एक ही है।

    प्रश्न ४: कवि के अनुसार ईश्वर कहाँ-कहाँ विद्यमान हैं? उत्तर: कवि के अनुसार, ईश्वर हर देश में, हर भेष (रूप) में, सागर, बादल, जल, नदी, चींटी, अणु-परमाणु, पर्वत और वृक्ष अर्थात सृष्टि के कण-कण में विद्यमान हैं।

    प्रश्न ५: 'तेरी रंगभूमि यह विश्व भरा' - इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। उत्तर: इस पंक्ति का आशय है कि यह संपूर्ण संसार ईश्वर का एक मंच या क्रीड़ा-स्थल है। जिस प्रकार एक कलाकार मंच पर अलग-अलग भूमिकाएँ निभाता है, उसी प्रकार ईश्वर भी इस विश्व रूपी मंच पर विभिन्न रूपों और लीलाओं में स्वयं को प्रकट कर रहा है। यहाँ होने वाली हर घटना, हर खेल और हर मेल उसी की लीला का एक हिस्सा है।


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